समन्दर दिखेगा नहीं.......
तुम नदी कहकहों की तुम्हें आँख में आँसुओं का समन्दर दिखेगा नहीं। सब्र का बाँध यूँ तो है मज़बूत पर टूट जायेगा फिर कुछ बचेगा नहीं॥ तुम तो कादम्बिनी जैसी फूली फली और् शहरों के अधरों की सरिता रहीं , मैं धर्मयुग सा हर रोज़ छोटा हुआ पर कटे हँस की सी उडानें भरीं , ये तो तय है कि नि:सार संसार में सार गर्भित जो होगा बिकेगा नहीं। जो भी गिर कर उसूलों से मुझको मिला जाने क्यों हाथ उसको बढा ही नहीं , डाल से जो गिरा है धरा पर सुमन आज तक देवता पर चढा ही नहीं , आत्म सम्मान के पेड़ का ये तना टूट जायेगा पर अब झुकेगा नहीं॥ ओ मेरे देवता , मुझको ये तो बता मेरी पूजा में क्या-क्या कमी रह गयी , मेरे अधरों पे भरपूर मुस्कान थी मेरी आँखों में फिर क्यों नमी रह गयी , जो भी मिल जायेगा लूँगा सम्मान से हाथ ये याचना को बढेगा नहीं॥