ग़ज़ल
ग़मो को आईना दिखला रहा हूँ।
मुसलसल चोट दिल पे खा रहा हूँ।
ज़मीं और आसमाँ मिलते नहीं हैं
मैं इससे कब भला घबरा रहा हूँ?
गया जो वक्त वो वापस न होगा
मैं उल्टे पाँव वापस आ रहा हूँ।
वो जिनमे अब तलक उलझे हुए थे
उन्ही ज़ुल्फ़ों को मैं सुलझा रहा हूँ।
जो बाते खुद नही समझा अभी तक
वही बातें उन्हें समझा रहा हूँ।
मिलेंगे वो मुझे इक दिन यकीनन
यही कह कर मैं दिल बहला रहा हूँ
लगी हैं ठोकरें रस्ते में मुझको
मगर रुकता नहीं चलता रहा हूँ।
@डा.विष्णु सक्सेना
सुप्रभात
16 मार्च 2016
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