द्वार के सतिये..............

जब कभी भी हो तुम्हारा मन चले आना,
द्वार के सतिये तुम्हारी हैं प्रतीक्षा में॥
हाथ से कांधों को हमने थाम कर
साथ चलने के किये वादे कभी,
मन्दिरों दरगाह पीपल सब जगह
जाके हमने बाँधे थे धागे कभी,
प्रेम के हर एक मानक पर खरे थे हम,
बैठ ना पाये न जाने क्यों परीक्षा में |
हम जलेंगे और जीयेंगे उम्रभर

अपना और दिये का ये अनुबन्ध है,
तेज़ आँधी भी चलेगी साथ में
पर बुझायेगी नहीं सौगन्ध है,
पुतलियाँ पथरा गयीं पथ देखते पल-पल,
आँख को शायद मिला ये मंत्र दीक्षा में।
अक्षरों के साथ बंध हर पँक्ति में
याद आयी है निगोडी गीत में,

प्रीत की पुस्तक अधूरी रह गयी
सिसकियाँ घुलने लगीं सँगीत में,
दर्द का ये संकलन मिल जाये तो पढना,
मत उलझना तुम कभी इसकी परीक्षा में।
Comments
Sanklan ki pahli kavita thi...aur ka intezar rahega!
Sandeep Saxena
Dr Krant M.L.Verma
krantmlverma.blogspot.com
sir main murid ho gya...
sabse pehle aapki kavita.. "ret par likhoge to..."
suni aur aapse aakar bhi mila....
tab se aksar yahi gungunata hoon..
jald hi darshan karne ka man hai ab..
Vivek j shukla
Vivek j shukla
आपको तो सुन के हम झूम जाते है
अपने लवो से हम तुम्हारे गीत गाते है
आपको तो सुन के हम झूम जाते है
अपने लवो से हम तुम्हारे गीत गाते है
'मत उलझना तुम कभी इसकी समीक्षा में।'
एक बार पुनः अवलोकन कर लें और जो सही हो उसे परिवर्तित कर लें