अमरबेल की तरह.........


अब चल रही है जिंदगी ढकेल की तरह।

घर मुझको लग रहा है किसी जेल की तरह।


कल मेरी ज़िदंगी थी जंज़ीर ज़ुल्फ की,

दम घोंटती है अब वही नकेल की तरह।


मैं खुद ही बिखर जाउंगा लगने से पेश्तर,

मत फेंकिये किसी पै मुझे ढेल की तरह।


मैं ग़म के बगीचे का इक सूखा दरख़त हूँ,

लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरह।


फूलों ने दिये ज़ख्म तो शूलों ने सीं दिये

सब खेलते हैं मुझसे यूँ ही खेल की तरंह।


अब तो करो रहम हमें आँखें न दिखाओ

बातें ही लग रहीं हैं अब गुलेल की तरह।


कल मेंने दिल की आग पर सेंकी थीं रोटियाँ

आँसू सभी जला दिये थे तेल की तरह।

Comments

Prabhat PARWANA said…
aapki kavitaao ka jawaab nahi sarkaar,,
teer nikalta hai kalam se fir dil ke aarpaar
प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
ब्लॉग का पता : http://prabhat-wwwprabhatkumarbhardwaj.b​logspot.com/
abhi bhardwaj said…
kya bat kya bat kya bat kya bat........
Anonymous said…
Sir Aapki Sabhi Rachnaye Sondrya se Bharpur hoti hai jinhe vividh pratiko ke madhyam se aap prastut karte hai......par is rachna ko dard men doob kar likha hai..........dil bhar aaya..........awesome poetry.....Shandaar. Alabh Sharma
Unknown said…
वाह सर वाह

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