छोड़कर जब से तुम्हारा...

छोड कर जब से तुम्हारा शहर हम आये
मन नहीं लगता किसी भी शहर में।

फूल जितने भी सजे गुलदान में
नागफनियों से सभी चुभने लगे,
जो कभी करते हवा से गुफ्तगू
रास्तों पर वो क़दम रुकने लगे,
जिस नदी तट पर मिला करते थे हम अक्सर
डूबता अब मन उसी की लहर में ।

आँख क्या करती उसी के घाट पर
स्वप्न सारे अश्रु पीने आ गये,
गर्मियाँ खुद बर्फ सी जमने लगी
सर्दियों को भी पसीने आ गये,
रात में झुलसा रही है चाँदनी तन मन
दर्द दूने हो गये दोपहर में ।

जब भी आते हो खयालों मे मेरे
महकने लगता है मेरा तन बदन,
एक गज़ल कह दूँ तुम्हारी शान में
उस समय तेज़ी से चलता है ज़हन,
मेरे मतले और मक्ते में तुम्ही तुम हो
शेर सारे हैँ तुम्हारी बहर में ।

Comments

विश्वनाथ तिवारी said…
बहुत सुन्दर उपमान हैं बधाई हो
Unknown said…
बहुत सुंदर विष्णु भाई....
धन्यवाद जी
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Unknown said…
गर्मियाँ खुद बर्फ सी जमने लगी
सर्दियों को भी पसीने आ गये,
वाह क्या बात ..........
Anonymous said…
very nice creation SIR
Unknown said…
Kya bat he Saxena ji. Please aapki poetry " Roopsi ke roop ka shrangar dekhte rahe. Roopsi to chal di dhar dekhte rahe. "Ko bhi isme dalo.
jobsindelhi said…
This comment has been removed by the author.
Kajal said…
Sir vo wala song kab aayega desh ki seema sole ugal rahi please bta digeye

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