एक अडिग सी शिला तुम सदा से रहीं , बुलबुलों की तरह फूटते हम रहे। दो से दो की तरह तुम तो दूने हुए , और गुणन खण्ड से टूटते हम रहे। हमने माथे की बिन्दी को बिन्दु समझ , जब चुराया तो सीमांत रेखा बना। जब तना लाजवंती का हमने छुआ , वो भी झुकने के स्थान पर तन गया। ज्यों दशमलव के आगे लगे शून्य हों बस उन्हीं की तरह छूटते हम रहे। एक अडिग......... चुपके-चुपके हमें जब निहारा किये , दृष्टि ऐसी झुकी जैसे समकोण हो। रूप ही एक बस शाश्वत सत्य है , सृष्टि ऐसी लगी ज्यों स्वयं गौण हो। तुम स्वयं-सिद्ध सी एक प्रश्नावली हर कठिन प्रश्न से रूठते हम रहे। एक अडिग..... हम कई बार मन से लघुत्तम बने , तुम महत्तम बने और बनते गये। यूँ तो अस्तित्व मेरा रहा शून्य-सा , अंक पर जब लगा लोग गिनते गये। अर्थ के वास्ते आज कवि बन गये हर कठिन प्रश्न से रूठते हम रहे। एक अडिग..