मन नहीं लगता किसी भी शहर में................





छोड कर जब से तुम्हारा शहर हम आये

मन नहीं लगता किसी भी शहर में।


फूल जितने भी सजे गुलदान में

नागफनियों से सभी चुभने लगे,

जो कभी करते हवा से गुफ्तगू

रास्तों पर वो क़दम रुकने लगे,

जिस नदी तट पर मिला करते थे हम अक्सर

डूबता अब मन उसी की लहर में ।


आँख क्या करती उसी के घाट पर

स्वप्न सारे अश्रु पीने आ गये,

गर्मियाँ खुद बर्फ सी जमने लगी

सर्दियों को भी पसीने आ गये,

रात में झुलसा रही है चाँदनी तन मन

दर्द दूने हो गये दोपहर में ।


जब भी आते हो खयालों मे मेरे

महकने लगता है मेरा तन बदन,

एक गज़ल कह दूँ तुम्हारी शान में

उस समय तेज़ी से चलता है ज़हन,

मेरे मतले और मक्ते में तुम्ही तुम हो

शेर सारे हैँ तुम्हारी बहर में ।

Comments

हर बार की तरह इस बार भी वही सिलसिला कायम, वही आपके दिल से ज़ज्बातों का कलम के रास्ते उतरना, वही नज़रों के रास्ते हमारे दिलों की गहराइयों तक पहुँचना और वहीं हमारा बहुत देर तक अविचलित एवं मंत्रमुग्ध से बने रहना....बस और क्या...?
आँख क्या करती उसी के घाट पर
स्वप्न सारे अश्रु पीने आ गये,.....
बहुत बढ़िया हमेशा की तरह
"जो कभी करते हवा से गुफ्तगू

रास्तों पर वो क़दम रुकने लगे"


प्रेम में हालातों.. का बिलकुल सही उदहारण.....वाह गुरु जी...आप गुरु जी ही हो....
abhi bhardwaj said…
sir ji kamal hai.........i have no exact words for these lyns........i jst say that............kya bat kya bat kya bat....
Unknown said…
सर,जब आप अपनी अंदाज मे सुनाते है तब अलग बात होतीहै। शब्दों का जादू हजारों गुना बढ जाता है।
Unknown said…
वाह ।। क्या कहने
लाजवाब

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