रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा , एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं। तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं। मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये , आस मन में लिये प्यास तन में लिये कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये , तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ , ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं। मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो , मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो , उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम , यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं। आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं , जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी, कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो , मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।
तन और मन है पास बहुत फिर, सोच-सोच में क्यों दूरी है? हम बदले तो कहा बेवफा, वे बदले तो मजबूरी है। गंगा के तट बैठ रेत के,बना-बना के महल गिराये। उसने हमको, हमने उसको जाने कितने सपन दिख...
झील के जल सी ठहरी है एक ज़िंदगी आप ही छू के लहरें उठा दीजिये , मेरे घर अन्धेरों का मेला लगा एक दीवाली यहाँ भी मना लीजिये। बांध लो तुम जो ज़ुल्फें सवेरा सा हो और बिखेरो यहाँ रात हो जायेगी , चाहे मुँह फेर कर यूँ ही बैठे रहो तुम से फिर भी मेरी बात हो जायेगी , मुद्दतों से न सूरज इधर आ सका- दूरियों की घटायें घटा दीजिये। जाने चन्दा से रूठी है क्यूँ चाँदनी नींद भी रूठ बैठी मेरी आँख से , रूठी-रूठी लहर आज तट से लगे पर न भँवरा ये रूठा कँवल पाँख से , मन तुम्हारा भी दरपन सा हो जायेगा- धूल इस पर लगी जो हटा दीजिये। जब भी आँखों में झाँका घटायें दिखीं अब तो बरसेंगी ये सोचने मन लगा , तन झुलसता रहा , पर न बारिश हुयी प्यासा-प्यासा सा हर बार सावन रहा , स्वांति की न सही बूँद आँसू की दे प्यास चातक की कुछ तो बुझा दीजिये।
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