अमेरिका के संस्मरण--2011.....(जब परदेसी विश्वविद्यालय में अपना हिन्दी विभाग दिखा.....)
मिडलेंड से प्रोग्राम करने के बाद हम तीनो हवाई जहाज सेIHA की एक स्तम्भ राले धरम में श्रीमती सुधा ओम धींगरा के निवास पर पहुँच गये। यहाँ हमको 4 दिन रुकना था। यहाँ की मेहमान नवाज़ी के सभी कवि कायल हैं। खाने से लेकर सोने तक की सारी सुविधाओं का बड़ी बारीकी से ध्यान रखा जाता है यहाँ । बहुत बड़ा घर, बहुत सुन्दर साहित्यिक माहोल और बहुत बुद्धिमान और सीधे-सादे से सुधा जी के हमसफर पति श्री ओम जी। बहुत मन लगता है सभी भारत से गये हुये कवियों का, इस घर में।
सुधा जी अपने प्रोग्राम को सफल बनाने के लिये अपनी मज़बूत टीम के साथ मन प्राण से लगती हैं, इसलिये अपने मक़सद मे सफल हो जाती हैं। हर बार की तरह इस बार भी कवि सम्मेलन सुपर हिट हुआ। सफलता के मद में खूब छक कर भोजन किया और खूब सोये। अगले दिन घर में ही बने खूबसूरत थियेटर में पडोसन देखी। हर गाने पर हम तीनों ने खूब नृत्य किया। अगले दिन सुधा जी से हमने आग्रह किया कि हम लोग अमेरिका की सबसे प्राचीन यूनिवर्सिटी घूमना चाहते हैं। उन्होंने वहाँ के प्रोफेसर अफरोज़ ताज़ और जान काल्वेल्ट से कह कर सब तय कर के हमें खुद वहाँ लेकर गयीं। आज उनका एक लेक्चर था उन्हीं की किसी कविता पर। हमे अफरोज़ के हाथों सोंप कर वो क्लास में चली गयीं। अफरोज़ ने अपने विभाग के लेक्चरर जान कालवेल्ट को कहा कि वो हमें पूरा परिसर घुमा दें।
आज का सबसे महत्वपूर्ण किरदार था जान...। अद्भुत व्यक्तित्व- अमेरिकन होते हुए भी धाराप्रवाह हिन्दी, उर्दू बोलना, वेद पुराणों की जानकारी रखना, हिन्दी के कवियों-साहित्यकारों की रुचि पूर्वक बातें करना, सब हमारे लिये कोतूहल का विषय थीं।
जान को मैं तो पहले से जानता था, लेकिन मेरे दोनों साथी ये देख कर बहुत अचम्भित थे। जान ने अपने कीमती समय में से जितना अधिक हो सकता था हमें घुमाया। फिर अपना विभाग दिखाने ले गये। हिन्दी विभाग को देखकर हम लोग रोमांचित और गर्वित होने लगे। वहाँ एशियन स्टडीज नाम से ये विभाग है, इसमे हिन्दी, उर्दू, अरबी हिब्रू आदि भाषाओं के अलग-अलग सेक्शन हैं। हिन्दी की ज़िम्मेदारी अफरोज़ और जान की जान पर है।
यहाँ अमेरिकन, जर्मन, फ्रांस, अफ्रीकन तथा भारत के वो बच्चे जो अमेरिका में पैदा हुये हैं, सभी हिन्दी का ज्ञान लेते हैं। एक ऐसी प्रवासी गुजराती बच्ची से भी मिलना हुआ जो अफरोज़ के अधीन “कबीर और साँई बाबा का तुलनात्मक”अध्ययन पर शोध कर रही थी। चूँकि परिसर बहुत बड़ा था,चलते चलते थक भी गये थे इसलिये पुस्तकालय और एक चलती हुयी क्लास देखने का मन हुआ। जान हमें पुस्तकालय ले गये यहाँ की दूसरी मंज़िल पर हिन्दी की तमाम किताबें देखने को मिलीं। पुरातन लेखक और कवियों से लेकर अर्वाचीन लेखक-कवियों की पुस्तकें पुस्तकालय की शोभा बढ़ा रहीं थीं। मैंने और प्रवीन ने भी अपनी अपनी पुस्तकें यहाँ रखने के लिये जान को समर्पित कीं।
फरोज़ जी ने हमें बताया कि पिछले दिनों अमेरिका ने हिन्दी के पोषण के लिये लगभग 4 करोड़ रुपया विभाग को दिया है। जिससे एक हिन्दी सिखाने की वेबसाइट A DOOR IN TO HINDI बनायी गयी है और अमेरिकन बच्चों को अन्य देशों की कला संस्कृति की जानकारी के लिये समय-समय पर अन्य देशों में ले जाने की व्यवस्था के अलावा कई रचनात्मक कार्य हो रहे हैं।
यहाँ पराये देश में हिन्दी के लिये इतना सम्मान और इतना काम देख कर सर्वेश की तो आंखें फटी रह गयीं, प्रवीन अपने देश में हिन्दी की दुर्दशा पर अफसोस व्यक्त कर रहे थे। मेरा मन कह रहा था कि चाहे जो भी हो हमें अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिये।
आज का दिन हम तीनो दोस्तों के लिये जानकारी भरा रहा।-
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