गीत

मन तुम्हारा जब कभी भी हो चले आना
द्वार के सतिये तुम्हारी हें प्रतीछा में,

हाथ से हाथों को हमने थाम कर
साथ चलने के किए वादे कभी,
मंदिरों दरगाह पीपल सब जगह
जाके हमने बंधे थे धागे कभी,
प्रेम के हरेक मानक पर खरे थे हम
बैठ पाए न जाने क्यूँ परीक्षा में;

अक्ष्हरों के साथ बाँध हर पंक्ति में
याद आयी है निगोड़ी गीत में,
प्रीत की पुस्तक अधूरी रह गयी
सिसकियाँ घुलने लगीं संगीत में,
दर्द का ये संकलन मिल जाए तो पढ़ना
मत उलझना तुम कभी इसकी समीक्षा में;
[शेष संकलन में]

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