भजन

अब हरि टेर सुनो निज जन की

तुमसे कहां छिपी करुणानिधि तुम जानत हो मन की,
बीती आयु घटी नहिं तृष्णा बढ़ी लालसा धन की।

करि छल कपट उदर ही पाल्यो शोभा कीनी तन की,
परमारथ से दूर रह्यो नित तज सेवा संतन की।

नहि जप तप व्रत दान कियो नहीं जानी रीति भजन की,
यह भरोस मोहि कीनी शुभ गति तुम ते बहु पतिनन की।

कीनी दया सप्रेम रहिन मोहि दीनी वृंदावन की
राधारमण मन्द्र घेरे विच कुटिया नारायण की।

इच्छा नहिँ वस्त्र सुंदर की ना नीके भोजन की
है अभिलाष एक शशिरवि उर प्रगट रूप दर्शन की

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